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अ॒यमु॑ वां पुरु॒तमो॑ रयी॒यञ्छ॑श्वत्त॒ममव॑से जोहवीति। स॒जोषा॑विन्द्रावरुणा म॒रुद्भि॑र्दि॒वा पृ॑थि॒व्या शृ॑णुतं॒ हवं॑ मे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam u vām purutamo rayīyañ chaśvattamam avase johavīti | sajoṣāv indrāvaruṇā marudbhir divā pṛthivyā śṛṇutaṁ havam me ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। ऊँ॒ इति॑। वा॒म्। पु॒रु॒ऽतमः॑। र॒यि॒ऽयन्। श॒श्व॒त्ऽत॒मम्। अव॑से। जो॒ह॒वी॒ति॒। स॒ऽजोषौ॑। इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒। म॒रुत्ऽभिः॑। दि॒वा। पृ॒थि॒व्या। शृ॒णु॒त॒म्। हव॑म्। मे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:62» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्रावरुणा) बिजुली और जल के सदृश वर्त्तमान (मरुद्भिः) पवनों के सदृश सुननेवाले जनों से (दिवा) सूर्य और (पृथिव्या) भूमि के साथ वर्त्तमान होकर आप सुख देते हैं और जैसे (अयम्) यह राजा (उ) क्या (पुरुतमः) अतिशय करके बहुत (रयीयन्) अपने धन की इच्छा करता हुआ (वाम्) आप दोनों की (अवसे) रक्षा आदि के लिये (शश्वत्तमम्) अनादि काल से सिद्ध पदार्थ को (जोहवीति) वारंवार देता है वैसे (सजोषौ) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले आप दोनों (मे) मेरी (हवम्) स्तुति को (शृणुतम्) सुनिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे राजा, अध्यापक और उपदेशक लोग सबके रक्षा वृद्धि और विद्या में प्रवेश होने के लिये शिक्षा करते हैं, वैसे ही परस्पर की प्रशंसा से पृथिवी आदिकों में ऐश्वर्यों को प्रयत्न से प्राप्त करके परस्पर में प्रीतिवाले सब मनुष्य होओ ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्रावरुणा यथा विद्युज्जले मरुद्भिर्दिवा पृथिव्या सह वर्त्तित्वा सुखं प्रयच्छतो यथाऽयमु पुरुतमो रयीयन् वामवसे शश्वत्तमं जोहवीति तथा सजोषौ युवां मे हवं शृणुतम् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) राजा (उ) वितर्के (वाम्) युवयोः (पुरुतमः) अतिशयेन बहुः (रयीयन्) आत्मनो रयिमिच्छन् (शश्वत्तमम्) अनादिभूतम् (अवसे) रक्षणाद्याय (जोहवीति) भृशं ददाति (सजोषौ) समानप्रीतिसेवनौ (इन्द्रावरुणा) विद्युज्जले इव वर्त्तमानौ (मरुद्भिः) वायुभिरिव श्रोत्रिभिः (दिवा) सूर्य्येण (पृथिव्या) भूम्या (शृणुतम्) (हवम्) स्तवनम् (मे) मम ॥२॥
भावार्थभाषाः - यथा राजाऽध्यापकोपदेशकाश्च सर्वेषां रक्षावृद्धिविद्याप्रवेशाय शिक्षां कुर्वन्ति तथैव परस्परेषां प्रशंसया पृथिव्यादिष्वैश्वर्य्याणि प्रयत्नेन प्राप्य परस्परेषु प्रीतिमन्तः सर्वे मनुष्यास्सन्तु ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे राजा, अध्यापक, उपदेशक, सर्वांचे रक्षण, वृद्धी व विद्या यासाठी शिक्षण देतात तसेच प्रयत्नाने पृथ्वीवरील ऐश्वर्य प्राप्त करून परस्पर प्रशंसा करून प्रीतीने राहणारी माणसे असावीत. ॥ २ ॥